Chhath Puja 2022 Day 4: छठी मैया को समर्पित छठ पर्व का चौथा और आखिरी दिन ऊषा अर्घ्य के रूप में मनाया जाता है। छठ पूजा के चौथे दिन उगते हुए सूरज को अर्घ्य दिया जाता है। बता दें कि छठ पूजा के पहले दिन नहाय खाय और दूसरे दिन खरना का बड़ा ही महत्व होता है। फिर तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और चौथे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की पष्ठी तिथि के दिन छठ पूजा की जाती है। वहीं छठ पूजा का पर्व बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में बड़े ही खास तरीके से मनाया जाता है। छठ की यह पूजा सूर्य देवता और उनकी पत्नी ऊषा को समर्पित होती है। आइए जानते है कि ऊषा अर्घ्य का क्या महत्व होता है और इस दिन क्या शुभ मुहूर्त बन रहा है-
ऊषा अर्घ्य का महत्व
छठ पूजा के दिन ऊषा अर्घ्य का भी बड़ा ही महत्व होता है। बता दें कि ऊषा अर्घ्य छठ पूजा का चौथा और आखिरी दिन होता है। इस दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और इसके बाद छठ के व्रत का पारण किया जाता हैं। इस दिन सभी व्रती महिलाएं सूर्योदय से पहले घाट पर पहुंचकर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देती हैं। इसके बाद महिलाएं सूर्य देवता और छठी मैया से संतान की रक्षा और परिवार की सुख-शांति की मनोकामनाएं करती हैं। वहीं इस पूजा के बाद व्रती महिलाएं जल, कच्चे दूध और प्रसाद से व्रत का पारण करती हैं।
अर्घ्य का शुभ मुहूर्त
इस दिन देवी ऊषा को अर्घ्य देते समय मुहूर्त का खास कर ध्यान रखें। ऊषा अर्घ्य कल यानी 31 अक्टूबर के दिन उगते हुए सूर्य को दिया जाएगा। पंचाग के अनुसार, 31 अक्टूबर को सूर्योदय का समय सुबह 0627 पर होगा।
छठ की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा प्रियंवद को कोई भी संतान नहीं थी, तब ऋषि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ को कराया और फिर यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर अपनी पत्नी को दे दी। बता दें कि इसके चलते उन्हें पुत्र तो हुआ लेकिन वह मृत हो गया। फिर राजा प्रयवाद अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान घाट गए और पुत्र को पुत्र वियोग में उसके प्राण त्यागने लगे। लेकिन उसी वक्त ब्रह्मा जी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुईं।
उन्होंने प्रकट होने के बाद कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। साथ ही उन्होंने यह भी कहा – ‘हे! राजन आप मेरी पूजा करें और बाकि लोगों को भी मेरी पूजा करने के लिए प्रेरित करें।’ बता दें कि राजा प्रयवद ने पुत्र की इच्छा की मनोकामना करते हुए देवी पष्ठी का व्रत किया और इसके बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गई।